चर्चा के इस अंक की शुरुआत कर रहे है आज की आवाज पर लिखी गयी प्रकाश गोविन्द जी के लेख से
बेघरों की परस्पर हमदर्दी का घेरा' अपने
आप में प्रकाश का घेरा चाहे न भी हो, किन्तु वह वह उसकी अनिवार्य भूमिका
निश्चय ही है ! कम से कम वह उस अँधेरे के घेरे को तोड़ने का पहला उपक्रम
तो है ही ! उस अँधेरे के घेरे को तोड़ने का - जो प्राकृतिक नहीं, मानव
निर्मित सांस्कृतिक अँधेरा :
"मैंने अपने घर
का नंबर मिटाया है / और गली के सिरे पर लगा गली का नाम हटाया है / और हर
सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है / पर अगर तुम्हे मुझसे जरूर मिलना है /
तो हर देश के शहर की हर गली का हर दरवाजा खटखटाओ ..... / यह एक शाप है, एक
वरदान है / जहाँ भी स्वतंत्र रूह की झलक मिले / समझ जाना वह मेरा घर है !"
अब आगे चलते है हिमांशु जी के ब्लॉग पर ,
हिमांशु भाई कई दिनों से परेशान थे अपने टेम्पलेट को लेकर .
इसी के लिए कल उन्होंने आशीष खंडेलवाल जी का आह्वान भी किया था और आज परिणाम सामने है हिमांशु भाई का टेम्पलेट की समस्या समाप्त ही गयी है .इसी खुशी में हिमांशु भाई लिखते है
उन दिनों जब दीवालों के आर-पार देख सकता था मैं अपनी सपनीली आँखों से, जब
पौधों की काँपती अँगुलियाँ मेरी आत्मा को सहला जाती थीं, जब कुहासे की
टटकी बूँदे बरस कर भिंगो देती थीं मन-वसन, जब पारिजात-वन का तारक-पुष्प
झर-झर झरता मेई चेतना के आँगन - तब भी तुम अथाह की थाह लेती हुई न जाने
किधर अविरत देखती रहती थीं ! तुम्हारा इस तरह निर्निमेष शून्य की ओर देखना
मेरे प्राणॊं में औत्सुक्य भरता था । मैं सब कुछ तजकर तुम्हारू उन्हीं
आँखों की राह पर बिछ-बिछ जाना चाहता था, और इच्छा करता था कि तुम्हारी
अन्तर्यामिनी आँखें, तुम्हारी पारदर्शिनी आँखें मेरे अन्तर के हर भेद को
पकड़ लें, उन्हें खोल दें ।
अब और आगे बढ़ते है चलते है सदा के ब्लॉग पर
सदा
टूटा जब
पत्ता डाली से,
लिपट के रोया
माली से,
सन्नाटों का शहर है ये है खौफ़ का बज़ार
जिंदा यहाँ गुलाम हैं औ बुतों की सरकार
मसला बस इतना तुम्हें है हूरों की दरकार
गर मार कर मरोगे तो हो जाए बेडा पार
राम औ रहीम हो गए इस जहाँ से फरार
लड़ते रहेंगे हम तो बस ख़ुदा है कुसूरवार
रात आखिर रात है, पलकों में खो जानी है ,
और शामें रोज़ थक के यादों में सो जानी है ।
आज फिर से ख़त को मेरे सुरमा लगा लो,
अपनी कित-आब के दांतों तले , ऊँगली बना लो ।
ठहरतीं हैं.....
मेरे चेहरे पर ठिठक कर....
तब यह एहसास
और भी संजीदा हो जाता है
कि इस मुकद्दस प्यार का
बस यही लम्हा अच्छा है !!
शालिनी राय बता रही है जीवन जीने की कला ,
जी लो जी भरके हम सभी के पास दो तरह की जिंदगी होती है। एक वह जिंदगी, जो हम जीते
हैं और दूसरी वह, जो सभी के अंदर होती है लेकिन हम उसे जी नहीं पाते।
जाहिर है, जरूरत इसी जिंदगी को जानने-समझने और जीने की है। इसके साथ ही यह
जानना भी जरूरी है कि कामयाब जिंदगी क्या है? हालांकि हर शख्स के लिए इसकी
अलग परिभाषा हो सकती है लेकिन मोटे तौर पर निम्न चीजें मिलकर एक कामयाब
जिंदगी बनाती हैं :
- एक सुरक्षित और आनंददायक जगह पर रहना। - ऐसे
लोगों का साथ, जो आपसे प्यार करते हों और आपकी इज्जत करते हों। - ऐसी
चीजें करना, जिसने संतोष मिले और जिनका कोई रिवॉर्ड भी हो। - अपनी जरूरतें
अच्छी तरह पूरी करने लायक चीजें और पैसा होना। - ऐसे समाज में रहना, जो
सभी की स्वतंत्रता की हिफाजत करता हो।
ओ माँ
मैं तुम्हारी जिंदगी
नहीं जी सकती,
मुझे मत सिखाओ
ये दादी माँ की बंदिशें
पुरातन रुढियों की
दास्तानें,
पंख फैला कर
मुक्त आकाश में
उन्मुक्त उड़ान भरने दो।
डा. अनुँराग बता रहे है दिल की बात
है ये वक़्त तकनीक का है पर तकनीक की दुनिया की अपनी पेचीदगिया है
.....बाजार की अंगुली थाम के बढे होते बच्चे है ..चौबीस साल के
घनघोर कैरियरिस्ट है....ज्यादा फ्लेक्सेबल रीड की हड्डिया है
....ख्वाहिशे डबल अंडर लाइन करे भागता युवा है ... अपने अपने
इगो की बड़ी बड़ी आलीशान ड्योढी में बैठकर इतराने वाले कुछ अधेड़
दुनियादार लोग है ... ... इत्ते बड़े बड़े रंग बिरंगे ग्लो साइन
बोर्ड है जो रात को चमककर सच ओर झूठ को गडमड कर देते है .. . ..ओर
हर ख्वाहिश पे अलादीन का चिराग न सही ...एक अदद इ एम आई जरूर है
...काश चेप्टर होते जिंदगी के भी .....किसी स्कूल में सिखाया जाता
...कैसे खामोशी से मुमकिन है .......इत्ते मुखोटो में रोज
आवाजाही .....कैसे पकड़ना जमीर का इक कोना ...जब दुनियादारी का बुलडोज़र
बढा आये
आँगन में आज फ़िर से गुलाब खिला है महेंद्र मिश्र शायद वो इस तरफ़ दो कदम चला है.
आँखों में मस्ती है चेहरा गुलाबी सा है मुझे यार का ख़त मुद्दतो बाद मिला है.
हरिओम के कार्टून
रूपचंद शास्त्री जी
धूप थी कल कड़ी, और थी गर्मी बड़ी,
ठण्डी कुल्फी का सब थे मज़ा ले रहे।
आज छाये हैं घन, है अन्धेरा सघन,
किस जनम की ये बादल सज़ा दे रहे।।
मांगता हैं कोई, मौन ही
आज की रात वाहो़ मे़ सो जाइये
क्या पता ये मिलन फिर गवारा ना हो
या गवारा भी हो तो भरोसा नही
मन हमारा भी हो मन तुम्हारा भी हो
सर्वस्व मेरे ! तम छंटा.. हूं मैं तुम्हारे
आलोक में ।
क्या है ...
निजशेष
उठा लिया है अपनी गोद में
तुम्हारी दृष्टि का सावन
मुसलाधार है या मद्धम
ज्ञात अब क्या बचा है ।
तुम्हारे आशीर्वचनों ने
समूचे दुःखों कोhttp://swapnamanjusha.blogspot.com/2009/10/blog-post_06.html
13 comments:
वाह ! आज तरन्नुम में चर्चा । सारे उल्लेख बेहतर हैं । धन्यवाद पंकज जी ।
बहुत उम्दा चर्चा!
बहुत खूब चर्चा है ये चिटठा चर्चा भी ...!!
बढियां चर्चा ! मगर सूंस को क्यों छोडा -क्या ब्लागजगत जीव जंतुओं के बारे में इतना बेपरवाह है ?
लय से लय मिलाती सुन्दर चर्चा
regards
चर्चा हिन्दी चिट्ठो की इस पोस्ट मे गीतों की तो बहार ही आ गयी।
बहुत-बहुत धन्यवाद!
सुंदर चिट्ठा चर्चा...बधाई!!!
khoobsurat charcha.....
बढ़िया चर्चा धन्यवाद जी
Behterin....
Alaterin....
Hamesha ki tarah !!
स्वागतेय बधाइयां
पंकज जी सन्दर्भ के लिये कुछ कम पंक्तियाँ दे ताकि ज़्यादा लोगो को आप शामिल कर सकें ।
aaj to kavita aur geeton ka janghat lagaya hai
chittha charcha bhi sureela sureela banaya hai
jhakaas..!!
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